अष्टावक्र जी के पिता कहोड़ ऋषि वेदों के ज्ञाता थे। एक बार वेदाध्ययन के लिए बैठे और जैसे ही पाठ शुरू किया एक आवाज आई कि "वेदों में ज्ञान नहीं है।" ऋषिवर ने यहाँ-वहाँ देखा पर जब किसी को न पाया तो पाठ पुनः शुरू किया पर आवाज फिर आई कि-"वेदों में ज्ञान नहीं है" कहोड़ ऋषि ने नेत्र बन्द कर ध्यान लगाया जानने के लिए कि आवाज कहाँ से आ रही तो पाया कि आवाज उनकी गर्भवती पत्नी के उदर से आ रही। आश्चर्य में भरकर बोल उठे-"ऐसा क्यों कहते हो? ज्ञान तो वेदों में ही है। तो पुनः आवाज आई कि यह बताइये चंद्रमा कहाँ है? ऋषिवर ने ऊँगली उठाते हुए चंद्रमा की तरफ इशारा किया तो उदरस्थ शिशु बोला कि पिताश्री पर आपकी ऊँगली तो चंद्रमा नहीं है वह तो चंद्रमा की ओर इशारा मात्र है। ऐसे ही वेदों में ज्ञान नहीं वेद तो ज्ञान की ओर इशारा मात्र हैं ज्ञान तो आत्मा के अंदर है। इस प्रकार की बातें सुनकर कहोड़ ऋषि क्रोधित होकर बोले-"अभी तो तू संसार में आया नहीं तब इतना साहस कि पिता को टोक रहा, मैं तुझे श्राप देता हूँ कि जा तू आठ जगह से टेढ़ा हो जा ताकि तेरा शरीर अष्टांग योग के योग्य न रहे।" उदरस्थ शिशु(अष्टावक्र) ने कहा-"पिताजी आंगन के टेढ़े होने से आकाश टेढा नहीं हो जाता। आप मेरे शरीर को तो टेढ़ा कर सकते हैं पर मेरे मन को नहीं। मन तो पहले से ही शुद्ध,बुद्ध,शांत,निर्विकार,निष्पंद है।मेरा मन तो पहले ही शांत है। ज्ञान तो अंदर से उपजता है। वह बाहरी नहीं भीतरी है।"
ओउम